हंगामा है क्यों वरपा..

उत्तरवन में एक बार फिर बेफालतू बात पर हंगामा खड़ा हो गया है। सुना है एक खरगोश जो उत्तरवन में शिक्षक है, उसने जंगल की व्यवस्था के सामने आइना रख दिया। ऐसा करने पर उसको निलंबित कर दिया गया है। ठीक ही तो किया? अब कोई उस खरगोश को समझाये कि भाई जंगल में आइने का क्या काम? पता नहीं कैसे-कैसे खरगोश शिक्षक बन जाते हैं। जंगल में हाथियों के साथ रह रहे हैं। उनके पास से न जाने कितनी बार गुजरे होंगे। पास से न सही दूर से तो देखा ही होगा कि ‘हाथी के खाने के दाँत और दिखाने के दाँत’ अलग-अलग होते हैं। ठीक है जी जंगलतन्त्र को समाप्त हुए 75 साल हो गए हैं या 100 साल भी हो जाँय। तब भी जंगल के प्राकृतिक नियम तो नहीं बदलेंगे न? जंगल के कुछ अनकहे नियम होते हैं। उन नियमों का सम्मान करना सीखिए। आखिर वह हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। वैसे भी हमको ऐसा जंगल बनाना है, जिसमें भावी पीढ़ी अपनी संस्कृति पर गर्व कर सके। आप यूँ ही राजा की या उसके बजीरों की आलोचना नहीं कर सकते। अरे, खरगोश जी ! आपको इतना भी नहीं पता कि बॉस चाहे कुछ भी करे, वह पुदीने या धनिये की चटनी की जगह, नियमों की चटनी बना कर खा ले। उनकी मर्जी। बड़े लोगों के शौक भी अलग होते हैं भाई। आपने यह कहावत नहीं पढ़ी या सुनी कि “बॉस इज ऑलवेज राइट”। कौन से ग्रह से पढ़कर आए हो? जो छोटी-छोटी शिष्टाचार की बातें भी आपको पता नहीं हैं।
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देखो खरगोश जी, ठीक है आप शिक्षक हो, आप बच्चों को कानून और नियमों का का सम्मान करना सिखाते हो।पर साथ में बच्चों को यह भी सिखाओ और खुद भी सीखो कि राजा और बजीर नियम कानून बनाते हैं। उनका सम्मान स्वाभाविक रूप से नियम और कानून से ऊपर है। उनकी आलोचना करना उचित नहीं है। लोग ऐसे ही आलोचना करते रहेंगे तो भला वह भविष्य में नियम बनाना ही बन्द नहीं कर देंगे? यह प्राचीन काल से इस जंगल की संस्कृति रही है कि शक्तियुक्त, भक्तियुक्त और धनयुक्त के लिए नियम नहीं होते। नियम केवल कमजोरों और कमजोरों की सुरक्षा के लिए होते हैं। यही तो लोक कल्याणकारी जंगल की भावना है। आप शिक्षक भले ही बन गए हों पर व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा अभी आपकी भी अधूरी है।
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देखो खरगोश जी, किताबी बातों और भाषण में कही बातों का मतलब केवल बोलने के लिए होता है। लोकतंत्र शब्द भी किताब में छपे अक्षरों के रूप में अच्छा और सुन्दर लगता है। आखिर जंगल के प्राकृतिक नियम थोड़े बदल सकते हैं? क्या गाय मांसाहार कर सकती है? क्या शेर घास खा सकते हैं? लोकतंत्र में बोलना पड़ता है कि सब राजा हो या बजीर या प्रजा सब समान हैं। लोकतंत्र में ‘असली राजा राजा नहीं होता, बल्कि असली राजा तो प्रजा होती है’। इस बात को पढ़ने और सुनने में आनन्द आता है। इसलिए बोली और लिखी जाती है। इसलिए आप भी आनन्द लीजिए।
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सुना है खरगोश जी, आपने मंदिर में चढ़ने वाले फूलों और मंदिर में बजने वाली घंटियों की ध्वनि की भी आलोचना की है। आपको इस बात पर आपत्ति है कि शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर में यह विशेष फूल क्यों चढ़ाया? खरगोश जी आपको थोड़ा पूजा-पाठ का सामान्य ज्ञान भी होना चाहिए। देखो हर मंदिर एक विशिष्ट स्थान होता है। हर मंदिर कुछ विशिष्ट भगवान विराजमान रहते हैं। और हर भगवान को कुछ विशेष फूल ही प्रिय होते हैं। उनके मंदिरों में वही फूल अर्पित किए जाते हैं। मंदिर में चढ़ाने के लिए फूलों का चयन काफी देखभाल कर किया जाता है। विशेष फूलों में भी विशेष फूलों का चयन करके ही मंदिर में चढ़ाया जाता है। ताकि मंदिर की पवित्रता बनी रहे। इसलिए आपका सवाल भक्ति की भावना के विरुद्ध है।
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आपको मंदिर की घंटियों की टन-टन की ध्वनि भी पसन्द नहीं है। पर खरगोश जी, संगीत सुनने का अपना आनन्द है। किसी को गिटार, बांसुरी या किसी अन्य इंस्ट्रूमेंट की ध्वनि पसन्द आती है। किसी को पक्षियों की चहचहाट, कोयल की कूक पसन्द आती है। किसी को नदियों की कल-कल बहने की ध्वनि या किसी को ऊपर पहाड़ों के बीच से छल-छल गिरते झरनों की ध्वनि में आनन्द आता है। तो कोई मंदिर में बजने वाली घंटियों की टन-टन में खो जाता है। अब आपको मंदिर के घंटियों की ध्वनि पसन्द नहीं है तो यह आपकी प्रॉब्लम है। आपको आलोचना का हक नहीं है।

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