
शिक्षा मंत्री जी पदोन्नति पर बार-बार एक बात कह रहे हैं कि शिक्षक कोर्ट केस वापस लें, हम कल प्रमोशन कर देंगे। शिक्षा मंत्री जी इस बयान से यह संदेश देना चाहते हैं कि सरकार तो पदोन्नति करना चाहती है, पर शिक्षकों ने खुद इस मसले को उलझा रखा है। संभव है कि शिक्षा मंत्री जी को विभाग के किसी अधिकारी या सलाहकार ने यह समझाया हो कि यह प्रकरण तभी हल होगा, जब कोर्ट से शिक्षक अपनी याचिका वापस लेंगे। और इसीलिए वह बार-बार इसी बयान को दोहरा रहे हैं।
परन्तु क्या शिक्षकों द्वारा कोर्ट से अपना केस वापस ले लेने पर, इस समस्या का समाधान हो जाएगा? आओ इसका पता लगाएं।
याचिका वापस लेने से वरिष्ठता विवाद स्वतः समाप्त नहीं होगा। कोर्ट से केस वापस लेने वाली बात सुनने में जितनी सरल लग रही है, उतनी है नहीं। माना शिक्षक कोर्ट से अपना केस वापस ले लेते हैं। तो क्या प्रमोशन अपने आप हो जाएंगे? पदोन्नति हेतु कोई प्रक्रिया तो अपनाई जाएगी? या जो पकड़ में आया उसका प्रमोशन कर दिया जाएगा?
पदोन्नति जब भी होगी, कोर्ट से केस वापस लेने से पहले करोगे या बाद में, सबसे पहले वरिष्ठता तो तय करनी ही पड़ेगी। वरिष्ठता के मानक तो तय करने ही पड़ेंगे। पदोन्नति के मानकों को तय किए बिना पदोन्नतियाँ होनी संभव नहीं हैं। जो भी मानक तय किए जाएंगे वह प्रचलित नियमों व कानूनों के अधीन ही करने पड़ेंगे। घूम-फिरकर गाड़ी वहीं खड़ी हो जाएगी।
जो विवाद है वह इसी बात का तो है कि सरकार और विभाग यह तो तय करें कि उसके द्वारा जो वरिष्ठता तय की गई है, वह सही है या गलत? अगर सही और न्यायसम्मत है तो कोर्ट के आने वाले निर्णय से डर क्यों रहे हैं? अच्छी पैरवी कीजिए। फैसला आपके पक्ष में ही आएगा। और अगर वरिष्ठता का निर्धारण गलत हुआ है तो कोर्ट में स्वीकार करें, “हमसे गलती हुई है” और वरिष्ठता का निर्धारण प्रचलित मानकों और नियमों के अधीन पुनः निर्धारित करें। “याचिका वापस लो” कहकर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना अनुचित है।
इस मामले का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ठीक है, आप कह रहे हो कि शिक्षक पहले कोर्ट केस वापस लें, फिर हम प्रमोशन की प्रक्रिया तुरंत शुरू कर देंगे। कोर्ट में तो लगभग 1% शिक्षक गए हैं। बाकी 99% शिक्षक तो कोर्ट नहीं गए हैं। यह 99% शिक्षक क्या वापस लें? यह भी तो बता दीजिए। जो 99% शिक्षक कोर्ट नहीं गए हैं, उनके प्रमोशन में देरी क्यों हो रही है?
निष्कर्ष –
मान लीजिए, किसी गाँव में 100 किसान हैं। इनमें से केवल 01 किसान अपनी जमीन के पानी के अधिकार को लेकर कोर्ट में गया है। अब स्थानीय प्रशासन कहता है, “जब तक वह 1 किसान अपनी याचिका वापस नहीं लेता, हम पूरे क्षेत्र में किसी को भी सिंचाई का पानी नहीं देंगे।”
इस स्थिति में सवाल किये जा सकते हैं कि –
बाकी 99 किसानों का पानी रोकने का क्या औचित्य है?
क्या वह 99 किसान किसी ऐसे केस को वापस ले सकते हैं, जो उन्होंने कभी किया ही नहीं? क्या प्रशासन की यह शर्त तर्कसंगत और न्यायोचित मानी जा सकती है?
यही स्थिति शिक्षकों की है। यदि केवल 1% शिक्षक कोर्ट में गए हैं, तो 99% शिक्षकों को उनकी पदोन्नति से वंचित करना क्यों उचित ठहराया जा रहा है?
क्या वह 99% शिक्षक कोर्ट से याचिका वापस ले सकते हैं, जबकि उन्होंने कभी कोई याचिका डाली ही नहीं है?
यह न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि विभागीय निर्णय की पारदर्शिता और मंशा पर भी सवाल खड़े करता है।
यह तर्क स्पष्ट करता है कि सरकार और विभाग के पास कोर्ट में गए शिक्षकों के विवाद से इतर अन्य शिक्षकों की पदोन्नति को तुरंत शुरू करने के लिए कोई वैध बाधा नहीं है। इस मामले को जानबूझकर उलझाया जा रहा है।
कोर्ट में लंबित मामलों को बहाना बनाकर सभी शिक्षकों की पदोन्नति रोकना न केवल अनुचित है, बल्कि यह न्याय और प्रशासनिक प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन भी है।
समाधान क्या है?
1- जितने शिक्षक कोर्ट में गए हैं, उतने पद सुरक्षित रखकर अन्य पदों पर पदोन्नति की जा सकती है।
2- कोर्ट के भविष्य में आने वाले निर्णय के अधीन शिक्षकों की पदोन्नति की जा सकती है। इसी फॉर्मूले से जुलाई 21 में हेडमास्टर की व अप्रैल 25 में शिक्षा विभाग के शिक्षणेतर संवर्ग की पदोन्नतियाँ हुई हैं।
3- शिक्षकों को फिलहाल तदर्थ पदोन्नतियाँ दी जा सकती हैं।
इन तीनों समाधानों में कोई भी समाधान कोर्ट की अवमानना नहीं करता।