प्रांतीय अधिवेशन भाग-01

काशीपुर के बाद मेरे व्हट्स ऐप में कोई नोटिफिकेशन नहीं दिख रहा था। मुझे लगा कि नेटवर्क प्रॉब्लम होगी। अफजलगढ़ पहुंचने के बाद भी जब कोई नोटफिकेशन नहीं दिखा तो मुझे संदेह हुआ कि यह कुछ और प्रॉब्लम है। नेटवर्क बार पूरे दिख रहे थे। मैंने वही टोटका अपनाया जो आप भी कई बार आजमा चुके होंगे। ऐसी स्थिति में मोबाइल को स्विच ऑफ किया और फिर ऑन कर दिया। जैसे ही नेट ऑन हुआ लगभग डेढ़ सौ के करीब नोटिफिकेशन मेरा इंतजार कर रहे थे। व्हट्स ऐप खोला तो चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था। छुट्टी पर असमंजस की स्थिति बन गयी थी। महानिदेशक का आदेश देखा तो थोड़ी देर मैं भी असमंजस में पड़ गया। मुझे लगा कि मुझे गाड़ी से उतर लेना चाहिये और वापस लौट जाना चाहिये। मैंने तय किया कि आगे जो भी स्टेशन आयेगा, वहीं उतर जाऊंगा। गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। मेरे मन में भी उतनी ही रफ्तार से उथल-पुथल मची थी। मैंने फोन को थोड़ी देर के लिये बंद कर दिया। और आंखें बंद कर ली। उतर कर लौटने के विचार पर भी मेरा मन एकदम पक्का नहीं हो पा रहा था। जब धारचूला से मैं इतनी दूर आ ही गया, तो पिकनिक ही सही, मुझे देहरादून जाना ही चाहिये। अगला स्टेशन आने वाला था। मुझे जल्दी से फैसला करना था कि उतरना है या नहीं। मन बहुत कंफ्यूजन में था। स्टेशन आ गया गाड़ी रुकी नहीं, मैंने रोकी भी नहीं।
…..
गाड़ी ने दिन के तीन बजे मुझे आईएसबीटी  में उतारा। इस बार मैंने पक्का मन बनाया था कि किसी भी प्रत्यासी द्वारा की गयी व्यवस्था को सादर अस्वीकृत कर दूंगा। इसलिये उतरते ही सबसे पहले होटल या धर्मशाला ढूंढने का मन बनाया। मैंने निर्णय किया कि जहाँ सम्मेलन होना है, उसके आस-पास ही होटल किया जाय।
“भाई साहब, ये लक्ष्मण विद्यालय कहाँ पड़ेगा ?”
“सॉरी, मुझे मालूम नहीं”
अब किस से पूछुं ? मैं यही सोच रहा था। तभी मेरी नजर दिल्ली जाती हुई गाड़ी पर पड़ी। एक मोहतरमा किसी को काफी देर तक हाथ हिलाकर पूरे कॉन्फिडेंस  के साथ बाय कर रही थी। दुर्गम में कोई ऐसा करता दिखे, तो करने वाला तो नहीं, पर देखने वाले भी असहज हो जाते हैं। मुझे लगा क्योंकि यह किसी को छोड़ने आयी हैं, इसलिये यह यहीं की लोकल होंगी। मुझे इनसे पूछना चाहिये।
जीन्स,टॉप और हाथ में सेब (एप्पल) का मोबाइल देख, मुझे उनसे पता पूछने के लिये अतिरिक्त आत्मविश्वास जुटाने की जरूरत महसूस हुई। मैंने अपने गले को खंकारा।
“एक्ससुज मी”
मेरी आवाज काफी दबी हुयी निकली और अंग्रेजी का अध्यापक होने के बावजूद ‘एक्सक्यूज़ मी’ का उच्चारण भी मैं आत्म विश्वास की कमी की बजह से सही नहीं कर पाया। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे आत्मविश्वास में यह कमी उन मोहतरमा के व्यक्तित्व के असर से थी या कई वर्षों तक लगातार दुर्गम में कार्य करते रहने की बजह से ?
“जी, यह लक्ष्मण विद्यालय कहाँ पड़ेगा ?”
“नो आईडिया”
दो लोगों से पता पूछने के बाद मेरा कॉन्फिडेंस लगभग समाप्त हो गया। तभी मेरी नजर बगल में चाय की दुकान पर पड़ गयी। मैंने फैसला किया कि चाय पिऊँगा और चाय वाले से ही पता पूछुंगा। मैंने चाय पी और चाय वाले से पता पूछा।
“भाई जी , ये लक्ष्मण विद्यालय कहाँ पड़ेगा ?”
….
(जारी…)

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