
बॉलकनी में भी मुझे काफी देर हो गयी थी। मैं वापस कमरे में लौट आया। थोड़ी देर फोन निकाल कर व्हट्स ऐप चेक किया तो विभिन्न ग्रुपों में चुनाव प्रचार के मैसेज भरे थे। थोड़ी देर फोन चेक करने के बाद मेरी आँखें भारी होने लगी। मुझे महसूस हुआ कि यदि मैं ज्यादा देर बिस्तर में ही रहा तो मुझे नींद आ जायेगी। मैं अभी सोना नहीं चाहता था क्योंकि फिर रात को नींद न आती। पर नींद को कैसे टाला जाय ? मैंने तय किया कि अधिवेशन स्थल को देखकर आया जाय। मैंने होटल के रिसेप्शन में कमरे की चाबी जमा की और रिसेप्शन वाले से लक्ष्मण विद्यालय का पता पूछा। उसने बताया कि रेलवे स्टेशन की पल्ली तरफ गुरु राम राय डिग्री कॉलेज पड़ेगा। उससे आगे चलते रहना उसी साइड में लक्ष्मण विद्यालय पड़ेगा।
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मैंने सड़क पार की और रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिया। थोड़ी दूर चलने पर रेलवे स्टेशन का मुख्य द्वार दिख गया। मैं अपनी जिंदगी में पहली बार रेलवे स्टेशन के इतने पास आया था। मैंने ट्रेन को फिल्मों में देखा था। कभी कभार तब दिख जाती थी, जब मैं घर आते-जाते समय काशीपुर से गुजरता था। मेरा बहुत मन होता था कि मैं ट्रेन में बैठ कर कहीं सफर करूँ। पर आज तक 38 साल की उम्र हो गयी, मैं ट्रेन में सफर नहीं कर पाया। सफर तो दूर की बात ट्रेन के डिब्बों को छू कर भी नहीं देख पाया था। मेरे साथ इलाहाबाद के सिंह साहब हैं। मैं उन्ही से ट्रेन से संबंधित अपनी शंकाओ का समाधान करता था। जैसे ट्रेन की चेन जिसको खींचने पर ट्रेन रुक जाती है। वह कितनी बड़ी और मोटी होती है ? उसको खींचने से उतनी बड़ी ट्रेन कैसे रुक जाती है ? जब टीटी टिकट चेक करने आता है तो चलती ट्रेन में एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे में कैसे आ पाता है ? ऐसे बहुत सारे सवाल मैं बच्चों की तरह उनसे पूछता रहता था।
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मुझे फिर शिक्षा विभाग द्वारा विद्यालयों के लिए किये गये कोटिकरण का ध्यान आ गया। उसमें रेलवे स्टेशन की दूरी का भी एक मानक है। दूरी के हिसाब से अंक निर्धारित हैं। मुझे भी रेलवे के अंक मिले हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि मुझ जैसे लोगों के प्रोफाइल में जिन्होंने रेलवे स्टेशन को कभी देखा नहीं, रेलवे से सफर कभी किया नहीं, रेल से आने-जाने से जिनका कोई वास्ता ही नहीं। उनके प्रोफाइल में रेलवे के अंक जोड़ने का क्या तुक ? मैंने बहुत सोचा, पर पहाड़ी क्षेत्रों में रेलवे के बिंदु को कोटिकरण में शामिल करने के तर्क को आज तक समझ नहीं पाया। यह बिंदु अगर केवल यूपी मूल के शिक्षकों के लिये होता तो कुछ-कुछ तार्किक हो सकता था। क्योंकि उनका घर आना-जाना ट्रेन से होता है। इसलिये जिसकी नियुक्ति रेलवे स्टेशन से नजदीक होगी, उसके लिये घर आने-जाने की उतनी सुविधा होगी। पर जिसने कभी ट्रेन का सफर करना ही नहीं, उसको रेलवे के अंक किसलिये ?
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आज मैं रेलवे स्टेशन के इतने पास था। मैंने तय किया कि जब कोटिकरण में अंक मिले ही हैं तो क्यों न स्टेशन के अंदर जाकर देखा जाय, फिर लक्ष्मण विद्यालय जाया जाय। स्टेशन के अंदर गया तो गेट पर टिकट विंडो थी। बगल में एक बोर्ड पर विभिन्न ट्रेनों के नाम व आवागमन का समय लिखा था। मैंने उनको पढ़ा, पर मेरे कुछ समझ नहीं आ रहा था। थोडी देर उस बोर्ड पर सिर खपाने के बाद मैंने स्टेशन के अंदर प्रवेश किया। थोड़ी दूरी पर मुझे किताबों की दुकान दिखी। किताबों की दुकान दिखती है, तो मैं अपने को रोक नहीं पाता हूँ। मैं दुकान की तरफ बढ़ा,अधिकांश अंग्रेजी की पत्रिकाएँ व नॉवेल थे। कुछ हिंदी की पत्रिकाएं भी थी, पर वह अंग्रजी की किताबों व पत्रिकाओं के नीचे दबी थी। ठीक उसी तरह जैसे देश में अंग्रेजी के नीचे हिंदी दबी हुई है। मैं अंग्रेजी का अध्यापक जरूर हूँ। पर अपनी मातृभाषा में ही खुद को सहज महसूस करता हूँ। मैंने कुछ अंग्रेजी पत्रिकाएँ यूँ ही पलटाई, ताकि किताब वाले को यह न लगे कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती। ऐसे ही एक दो अंग्रेजी के नॉवेल भी किताब वाले से मांगे, ताकि उसको यह कन्फर्म हो जाय कि मुझे अंग्रेजी तो आती है, पर नॉवेल पसंद नहीं आ रह हैं।
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थोड़ी देर उस स्टोर में बिताने के बाद मैं बगल में दूसरे बुक स्टोर में चला गया। वहाँ भी वही स्थिति थी, पर हिंदी की पत्रिकायें पहले वाले स्टोर से कुछ ज्यादा थी। वहां भी मैंने दो-चार पत्रिकायें पलटाई पर खरीदी नहीं। किताब वाले ने समझ लिया कि यह खरीदेगा तो है नहीं बेकार में किताबें उलट-पुलट रहा है। इसलिये उसने बॉडी-लैंग्वेज को नेगेटिव बना लिया। मैंने भी स्थिति को भाँपा और स्टोर को छोड़ दिया।
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(जारी…)
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(पात्र और घटनायें पूर्णतः काल्पनिक हैं। पसन्द आने पर लाइक व फॉरवर्ड जरूर कीजिएगा।)