
सरकारी कर्मचारी एक लम्बे समय से पुरानी पेंशन बहाली के लिए आंदोलनरत हैं। सरकार द्वारा जब 2004 में नई पेंशन स्कीम लायी गयी थी। तब इस स्कीम को पुरानी पेंशन स्कीम से बेहतर और लाभदायक होने के रूप में प्रचारित किया गया था। एक कर्मचारी को रिटायरमेंट के बाद आर्थिक सुरक्षा चाहिए, अब वह पुरानी पेंशन स्कीम से मिले या नई पेंशन स्कीम से। इसलिए तब सरकारी कर्मचारियों ने भी कोई विरोध नहीं किया और सरकार के निर्णय पर विश्वास करके चुप रहे। परन्तु कुछ वर्ष गुजरने के बाद नई पेंशन स्कीम की सच्चाई धीरे-धीरे सामने आने लगी। यह स्कीम कर्मचारियों की रिटायरमेंट की बेसिक जरूरतों को भी पूरा करने में सक्षम नहीं है। परिणाम स्वरुप सरकारी कर्मचारी पुरानी पेंशन स्कीम को पुनः लागू करने के लिए आंदोलनरत हैं। परन्तु सरकार पुरानी पेंशन स्कीम को पुनः लागू करने के लिए तैयार नहीं है।
सरकार के आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पुरानी पेंशन को सरकार के लिए आर्थिक रूप से नुकसान दायक बताते हैं। सबसे पहले तो सरकार कोई दुकान या वाणिज्य संस्थान की मालिक नहीं है, जो अपने कर्मचारियों के अधिकारों का वित्तीय लाभ-हानि के आधार पर निर्धारण करे। सरकार का उद्देश्य अपने कर्मचारियों को एक सम्मानजनक जीवन प्रदान करना होता है, विशेष रूप से उस समय जब वे अपनी पूरी जीवन-शक्ति राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर चुके हों। पेंशन व्यवस्था को केवल एक आर्थिक लाभ के रूप में देखना उचित नहीं है, बल्कि यह सरकार की कल्याणकारी भूमिका का प्रतीक है। सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन की व्यवस्था किसी भी राष्ट्र की नीति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। अपने कर्मचारियों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना, उसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
एक तरफ सरकारी कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए विशेषज्ञ आर्थिक तंगी का रोना रोने लगते हैं। दूसरी तरफ यह प्रचारित किया जा रहा है कि हम आर्थिक महाशक्ति बनने वाले हैं। क्या कोई देश अपने कर्मचारियों का पेट काटकर आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर जा सकता है? पहले देश आर्थिक रूप से गरीब था, तब सबको पेंशन दी जा रही थी। अब जब आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है, तो पेंशन नहीं दे पा रहे, यह कैसा विरोधाभाष है? यह हम कैसी आर्थिक महाशक्ति बन रहे हैं, जो अपने कर्मचारियों के पेंशन के अधिकार से हाथ खींच रहे है?
कई विकासशील और आर्थिक रूप से हमसे कमजोर देशों में भी सरकारी पेंशन व्यवस्था लागू है। नेपाल, श्रीलंका, भूटान, बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे देशों में सरकारें पेंशन प्रदान करती हैं। आर्थिक स्थिति से कमजोर होने के बावजूद, ये देश अपने कर्मचारियों के भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि पेंशन देना केवल आर्थिक स्थिति पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह सरकार की संवेदनशीलता और अपने कर्मचारियों के प्रति उसकी जिम्मेदारी का प्रतीक है।
सरकार की नीतियों में एक और विरोधाभाष देखने को मिलता है। सरकार एक तरफ कल्याणकारी दिखने के लिए वृद्धावस्था पेंशन बाँटती है। दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारियों को पेंशन से वंचित कर रही है। सरकार का यह निर्णय लोक कल्याण की भावना के विपरीत है। 60 वर्ष की उम्र में जब एक कर्मचारी का शरीर और मन दोनों थक जाते हैं, तब उसे हर माह मिलने वाली पेंशन एक भरोसे का स्रोत होती है। यह उस सेवा का प्रतिफल होती है जो उसने सरकार और समाज के लिए प्रदान की होती है। जिस तरह से शिक्षक, पुलिसकर्मी, डॉक्टर, और अन्य सरकारी कर्मचारी राष्ट्र निर्माण में अपना जीवन लगा देते हैं, उनके बुढ़ापे का सम्मान और सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए।
निष्कर्ष — जब एक सरकारी कर्मचारी अपने पूरे जीवन की सेवा दे चुका होता है, तो उसका यह अधिकार होता है कि वह अपने रिटायरमेंट के बाद एक स्थिर और सुरक्षित जीवन जी सके। अगर सरकार उसे पेंशन जैसी सुविधा से वंचित करती है, तो यह न केवल उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाती है, बल्कि उसे वृद्धावस्था में आर्थिक असुरक्षा की ओर भी धकेल देती है।
सरकारी पेंशन की व्यवस्था केवल एक आर्थिक लाभ नहीं, बल्कि कर्मचारी का अधिकार है। यह उनकी सेवा के प्रति सरकार द्वारा आभार व्यक्त करने का माध्यम है। किसी भी राष्ट्र की आर्थिक मजबूती का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि वह अपने कर्मचारियों के अधिकारों से समझौता करे। एक कल्याणकारी सरकार का यह दायित्व है कि वह अपने कर्मचारियों के बुढ़ापे के दिनों में उन्हें आर्थिक रूप से सुरक्षित रखे।
यह सही समय है कि सरकार पेंशन व्यवस्था के महत्व को समझे और लोक कल्याण की भावना के अनुरूप अपने कर्मचारियों को पुरानी पेंशन जैसी स्थायी और सुरक्षित योजना प्रदान करे।