
राजकीय शिक्षक संघ द्वारा एक सूत्रीय माँग “सीमित विभागीय भर्ती” को निरस्त करने के लिए आयोजित आंदोलन को फिलहाल पहले चरण की सफलता के बाद अल्प विराम दे दिया गया। इस पर पूर्ण विराम लगाने की जिम्मेदारी अब विभाग व सरकार के पाले में है।
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उत्तराखंड में प्रधानाचार्य का पद पूर्व में पदोन्नति का पद था। इसको सरकार द्वारा बिना राजकीय शिक्षक संघ से विचार विमर्श किए हुए बदल दिया गया। 50% पदोन्नति के पद हटा कर “सीमित विभागीय भर्ती द्वारा भरने के लिए लोक सेवा आयोग को दे दिए। भर्ती के लिए आवेदन की शर्तें इस प्रकार तय की गयी कि लगभग 5% शिक्षक ही आवेदन के पात्र बन पाए। 95% शिक्षक इस पूरी प्रक्रिया से ही बाहर हो गए। सरकार द्वारा जो नई नियमावली लायी गयी वह ‘अवसर की समानता’ के सिद्धांत के अनुरूप नहीं थी। संघ द्वारा सरकार से इस नियमावली को वापस लिए जाने का अनुरोध किया गया व पूर्व की भांति पदोन्नति की प्रक्रिया अपनाये जाने की बात रखी गयी। परन्तु सरकार द्वारा संघ के अनुरोध को अनसुना कर दिया गया। इसलिए राजकीय शिक्षक संघ लोकतान्त्रिक तरीके से नई नियमावली के निरस्तीकरण हेतु आंदोलन में उतर गया। आंदोलन क्रमशः सांकेतिक धरना-प्रदर्शन, क्रमिक अनशन से होते हुए आमरण अनशन तक पहुँच गया। शिक्षक साथी श्री अर्जुन पंवार (जनपद मंत्री देहरादून), श्री देवेंद्र सिंह बिष्ट जी (ब्लॉक अध्यक्ष बीरोंखाल), श्री अंकित रौथाण (ब्लॉक मंत्री अगस्तमुनि) आमरण अनशन में बैठ गए। आंदोलन को तेज होता देख और अधिकांश शिक्षकों की आंदोलन में प्रतिभागिता की रिपोर्ट्स मिलने के बाद, शायद माननीय मुख्यमंत्री जी ने आंदोलन का संज्ञान लिया और संघ को विश्वास दिलाया कि इस मुद्दे पर बिना राजकीय शिक्षक संघ की सहमति से आगे कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा।
मुख्यमंत्री के आश्वासन के बाद आंदोलन की कोर कमेठी ने फिलहाल आंदोलन को स्थगित करने पर अपनी सहमति दे दी। और राजकीय शिक्षक संघ द्वारा फिलहाल आंदोलन को स्थगित कर दिया गया है।
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बहुत सारे साथी जो सीमित सीधी भर्ती के मानकों को पूरा करते थे। उन्होंने इस भर्ती में आवेदन भी किया था और परीक्षा की तैयारी भी कर रहे रहे थे। वह तैयारी के साथ-साथ संघ द्वारा आयोजित हर धरना प्रदर्शन में शामिल थे। कुछ साथी जो हर हाल में परीक्षा चाहते थे वह संघ द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में असहयोग करके अपना मत जाहिर कर रहे थे। जाहिर है उनको परीक्षा स्थगित होने से निराशा हुई होगी। उनकी निराशा को समझा जा सकता था। संघ के पदाधिकारियों का कर्तव्य था कि वह बहुमत के साथ खड़े हों, वह रहे। यही तो लोकतंत्र है। अगर हम लोकतान्त्रिक मूल्यों का सम्मान करते हैं। तो संघ के निर्णय के साथ खड़े रहना चाहिए। चाहे परिणाम हमारे व्यक्तिगत हित की अनदेखी ही क्यों न करता हो। और देखा जाय जो भी निर्णय हुआ है उससे किसी को भी निराश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि यह निर्णय किसी को भी प्रधानाचार्य बनने की प्रक्रिया से बाहर नहीं कर रहा है।
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(किसी का सहमत होना अनिवार्य नहीं है। यह पोस्ट मात्र इस संबंध में चर्चा-परिचर्चा हेतु है। मेरे सुझाव व विश्लेषण गलत भी हो सकते हैं, यह अंतिम सत्य नहीं है।)