परीक्षा पर चर्चा…भाग -03 (अंतिम भाग)

सौम्य खरगोश को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाय? टीवी को बिना स्टैंड के मेज में कैसे स्थिर किया जाय। तनाव के कारण उनको कोई तरीका नहीं सूझ रहा था। तभी सोनू खरगोश जी आते दिखाई दिए। सौम्य की ऑंखें टिमटिमा गयी। दोनों ने मिलकर टीवी रखने की कुछ युक्तियाँ सोची। कई युक्तियाँ सोचने के बाद। एक सही प्रतीत होती युक्ति को फाइनल किया।
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टीवी को मेज के ऊपर न रखकर लकड़ी की कुर्सी पर रखने का निर्णय हुआ। कुर्सी में पहले तीन-चार फोल्ड करके मेजपोस का कपड़ा रखा गया। उसके बाद टीवी को उसके ऊपर रखा। जिससे टीवी फिसले न। फिर टीवी को उसके डिस्प्ले वाले हिस्से को छोड़कर ऊपर और नीचे, रस्सी की सहायता से, कुर्सी की पीठ पर बांध दिया गया। अब टीवी के गिरने के बहुत कम चांस थे। ज़ब तक कोई जानबूझ कर धक्का न मारे।
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अब बच्चे और अन्य स्टॉफ भी पहुँच गया था। प्रार्थना का समय हो गया था। फिलहाल टीवी के इंस्टॉलेशन की कार्यवाही रोक दी गयी। प्रार्थना हुयी। कब समय बीता, सौम्य खरगोश को इसका पता नहीं चला। उनके दिमाग़ में पूरी प्रार्थना व राष्ट्रगान के समय भी टीवी का इंस्टॉलेशन ही घूम रहा था। राष्ट्रगान जब समाप्त होने को था, तब उनको खयाल आया कि वह विश्राम अवस्था में ही खड़े हैं।
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प्रार्थना समाप्त होते होते साढ़े नौ बज गए थे। प्रसारण हेतु अब मात्र डेढ़ घंटा बचा था। अभी टीवी को डिश एंटीना से जोड़ना बाकी था। जब टीवी को डिश एंटीना से जोड़ा गया, तो सिग्नल ही नहीं आये। डिश एंटीना को दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे घुमा देख लिया। पर सिग्नल आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। घर से लाते समय या जब सुबह सौम्य जी ने उसको घसीटा था। एलाइनमेंट गड़बड़ हो गया लगता है। कितना भी दाएं-बाएँ घुमाओ सिग्नल आने का नाम नहीं ले रहे थे। सौम्य जी और सोनू जी कई बार बारी-बारी से डिश को दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे घुमा चुके थे। पर कोई परिणाम नहीं निकला। धीरे-धीरे अन्य अध्यापक भी वहाँ पर जमा हो गए। सबने बारी-बारी से डिश को दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे घुमाया पर कुछ नहीं हुआ। सिग्नल मिल ही नहीं रहे थे।
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तभी मोनू खरगोश ने प्ले स्टोर से एक सिग्नल फाइंडर एप डाउनलोड किया। उससे सिग्नल ढूंढ़ने की कोशिश पर फिर भी समस्या हल नहीं हुयी। मोनू ने एक एक करके लगभग दस अलग-अलग सिग्नल फाइंडर एप डाउनलोड करके, उनको चेक करके देख लिया। पर स्थिति जस की तस थी।
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पौने ग्यारह हो गए थे। अभी भी टीवी चल नहीं पाया था। अब सारे बच्चे भी मैदान में आ गए थे। वह भी इस ऑपरेशन का गोल घेरा बनाकर आनन्द लेने लगे। कुछ बच्चों ने भी इसमें अपने हाथ आजमाये। पर परिणाम अभी भी शून्य था। घड़ी की सुई दस पचपन पर पहुँच गयी थी। अभी भी टीवी चल नहीं पाया था। सौम्य खरगोश काफी तनाव में दिख रहे थे। उन्होंने सबको हटा कर एक अंतिम बार के लिए, डिस की कमान अपने हाथों में ली ली। सभी बच्चे और स्कूल स्टाफ अभी भी इस पूरे ऑपरेशन के सफल होने की उम्मीद कर रहे थे।
कुछ छोटे बच्चे जो गोल घेरे में, लम्बे बच्चों के पीछे खड़े थे। वह बीच-बीच में, पीछे से उछल-उछल कर देखने की कोशिश कर रहे थे।
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ग्यारह बच चुके थे। इस ठंड के मौसम में सौम्य खरगोश जी के चेहरे पर पसीना छलछला रहा था। और प्रसारण का समय शुरू हो जाने पर, अभी भी टीवी सेट नहीं हो पाने का फ्रस्टेशन, उनके चेहरे पर स्पष्ट देखा जा सकता था। उनका चेहरा एकदम लाल और पसीने से तर-बतर हो गया था। उनकी शारीरिक भाषा से लग रहा था कि उन्होंने इस अंतिम प्रयास में हार स्वीकार कर ली है। गुस्से और फ्रस्टेशन में उन्होंने एक लात डिश एंटीना को मार दी। और यह क्या? लात काम कर गयी। वह चिल्लाये युरेका…..।
टीवी ने सिग्नल पकड़ लिए। सभी बच्चे एक साथ ख़ुशी में चिल्ला पड़े। और दिन की बात होती, तो बच्चों के इस तरह चिल्लाने पर डांट पड़ चुकी होती। आज किसी अध्यापक ने उनसे कुछ नहीं कहा।
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सभी बच्चे मंच में रखे टीवी के सामने बैठा दिए गए। प्रसारण शुरू हो चुका था। अब एक और समस्या आ गयी। बाहर के उजाले में टीवी की आवाज तो सुनाई दे रही थी। परन्तु पिक्चर्स नहीं दिख पा रही थी। टीवी की ब्राइटनेस फुल कर देने पर भी कोई खास असर नहीं हुआ। बच्चों ने कंप्लेंट की कि अभी भी कुछ नहीं दिख रहा। इसका हल, टीवी को घूँघट पहनाकर निकालने का प्रयास किया गया। अब कुर्सी की पीठ के टॉप में दाएं और बांयी तरफ एक-एक लम्बी लकड़ी बाँधी गयी, उसके ऊपर मेजपोस डालकर एक ओट बनाने का इरादा था। जैसे ही उन लकड़ियों के ऊपर मेजपोस डाला गया, लकड़ियाँ मेजपोस का वजन सहन नहीं कर पायी और टीवी ने दुल्हन की तरह पूरा घूँघट ओढ़ लिया। सभी बच्चे सामूहिक रूप से खिलखिलाने लगे। मेजपोस की जगह कोई हल्का कपड़ा होता तो तो शायद काम बन सकता था। पूरे स्कूल में कोई हल्का कपड़ा ढूंढा गया, पर मिला नहीं।
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इसका हल, सोनू खरगोश जी ने ढूंढ लिया। उन्होंने भोली खरगोश, जो इस विद्यालय में अध्यापिका हैं, का दुपट्टा मांग लिया। दुपट्टा हल्का था। टीवी के ऊपर बँधी लकड़ियों ने उसका वजन सह लिया। इस प्रयोग के सफल होने पर सभी मुस्करा दिए। कलरफुल दुपट्टे से ढकने के बाद, अब टीवी दुल्हन के मानिंद लग रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे सभी लोग किसी नयी दुल्हन को देखने आये हों। अब बच्चों को टीवी की पिक्चर्स भी थोड़ा बहुत दिखने लगी थी।
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सौम्य खरगोश के चेहरे की शान्ति अब देखते ही बनती है। वह पीछे कुर्सी में बैठ गए। अभी उनको कुर्सी में बैठे दो मिनट भी नहीं हुए थे कि वह हो गया जिसके होने की संभावना पर किसी ने विचार ही नहीं किया था। लाइट चली गयी।
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अब क्या किया जाय? अब उसी रेडियो की ढूंढ होने लगी। जिसको विगत वर्षों इस प्रकार के कार्यक्रम में इस्तेमाल किया जाता था। वह रेडियो सौम्य खरगोश जी का था। पर वह उनके कमरे में छूट गया था। इस बार टीवी के चक्कर में वह रेडियो लाना ही भूल गए थे। अब क्या किया जाय? तय हुआ कि मोबाइल से आगे की चर्चा को सुनाया जाय। मोबाइल की आवाज आगे बैठे कुछ बच्चों को छोड़कर, पीछे किसी को नहीं सुनाई दे रही थी। पर निर्धारित समय तक सभी बच्चे और अध्यापक मैदान में बैठे रहे।
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कार्यक्रम समाप्त हो गया था। बच्चे अपनी कक्षाओं में वापस चले गए थे। शिक्षक भी उठकर स्टाफ रूम की तरफ बढ़ गए थे। सौम्य खरगोश अभी भी मैदान में कुर्सी में अकेले बैठे हुए थे। वह सोच रहे थे कि इस पूरी कवादत से क्या हासिल हुआ? बच्चे कितने तनाव मुक्त हुए होंगे, यह तो बच्चे ही जान सकते हैं। पर मुझ जैसे शिक्षक, इस प्रकार के अव्यवहारिक आदेशों से कितने तनाव युक्त होते हैं, काश इस पर भी कोई चर्चा होती ?
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समाप्त.
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