मैं टीवी के सभी चैनल्स, एक तरफ से दूसरी तरफ तक बदल चुका था। किसी भी चैनल में ऐसा कंटेंट नहीं था जिस पर रुका जा सके।
फोन को मैं इतना प्रयोग कर चुका हूँ कि अब नजर कमजोर हो गयी है, ज्यादा देर देखने पर ऑंखें दर्द करने लगती हैं। जब भी ऐसा होता है मुझे चिंता होने लगती है कि आजकल के बच्चों की ऑंखें जल्दी कमजोर हो जाएंगी। फिर मुझे मेरी कल्पना में अधिकांश बच्चे, चश्मे पहने दिखने लगते हैं। बच्चे क्या, अधिकांश लोग चश्मे में दिखने लगते हैं। इससे पहले कि मन कुछ और चिंता वाली फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखे, मैंने लाइट बंद की और सोने की कोशिश करने लगा।
……
मैं सोचने लगा की जल्दी नींद आ जाय। पर मन फिर खुरापात में लग गया। उसने एक सवाल और ढूंढ लिया कि आखिर यह नींद आती कहाँ से है ? मैंने मन को बेफालतू सवालों को ढूंढ़ने से मना किया। पर वह नहीं माना। फिर सोचने लगा कि नींद को आते हुए किस-किस ने देखा होगा ? मैं तो आज तक नहीं देख पाया। मैं मन को शांत करने की कोशिश में लगा था। अचानक अँधेरे में आकृति मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसका चेहरा फटा हुआ दिख रहा था। लकीरें काफी गहरी दिख रही थी। उसको उजाले में भी कोई देख लेता, तो डरे बिना नहीं रह पाता। मैं तो उसे अँधेरे में देख रहा था, इसलिए डर की अधिकता के कारण मैंने अपना मुँह रजाई के अंदर छुपा दिया।
……..
“मुँह बाहर निकालिये। मुझे आपसे बात करनी है”- आकृति ने कहा।

“नहीं, मैं नहीं निकाल सकता। मुझे तुमको देखकर डर लग रहा है। और मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी।” – मैंने कहा।
“देहरादून में घर क्या बना लिया। अब तुमको मुझसे बात करने में दिक्क़त हो रही है। और मुझे देख कर तुम डर क्यों रहे हो? मेरी इस हालत के तुम भी जिम्मेदार हो। ये दरारें जो तुम मेरे चेहरे पर देख रहे हो, जिनको देखकर तुमको डर लग रहा है, यह तो कुछ भी नहीं हैं। यह दरारें केवल मेरे चेहरे तक सीमित नहीं हैं। यह मेरे पूरे शरीर में और दिल में फैली हैं। यह भीतर से, तुम्हारे अनुमान से भी गहरी हैं।” – आकृति ने कहा।
“देखिए, आप मुझ पर आरोप मत लगाइये। मेरा आपकी इस हालत से कोई संबंध नहीं है।” – मैंने रजाई के अंदर से ही कहा।
“जो शहर में रहने लगता है, वह किसी को पहचानने के बाद भी जानबूझ कर इंकार कर देता है।” – आकृति बोली।
“नहीं ऐसी बात नहीं है, मैं सच कह रहा हूँ। मैं आपको नहीं जानता।”
“जिसको आप नहीं जानते, आप उससे बात नहीं करते?”- आकृति ने फिर सवाल किया।
“नहीं, ऐसी बात नहीं है। ठीक है कहो क्या कहना है? मैं सुन रहा हूँ। पर मैं रजाई से अपना मुँह बाहर नहीं निकालूँगा।” – मैंने आकृति से अनुरोध किया।
“मेरा नाम जोशीमठ है। आदि गुरु शंकराचार्य ने जो चार मठ गोवर्धन मठ (उड़ीसा), शारदा मठ (गुजरात), श्रृंगेरी मठ (कर्नाटक) तथा चौथा मठ जिसका नाम ज्योतिर्मठ है, वह मेरे सीने में स्थित है। चारों मठों में से मेरा जन्म सबसे पहले हुआ था। मैं आपके राज्य उत्तराखंड के चमोली जिले में हूँ। इसी ज्योतिर्मठ की वजह से, मैं जोशीमठ के नाम से जाना जाता हूँ। ज्योतिर्मठ बोलने में थोड़ा कठिन लगने के कारण, लोग मुझे जोशीमठ कहकर बुलाने लगे और अब मैं जोशीमठ के नाम से प्रचलित हूँ।”
“क्या?” – मैंने रजाई को लगभग फेंकते हुए कहा। “वही जोशीमठ न जो गढ़वाल में है? और आजकल चर्चाओं में है? मैं तो बीस साल पहले गढ़वाल छोड़कर देहरादून आ गया था। इसलिए मुझको गढ़वाल के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। पर तुम्हारी हालत इतनी ख़राब कैसे हो गयी? मुझे आपके बारे में और जानना है?” – मैंने उत्सुकता से पूछा।
“वैसे एक बात बताऊँ? मुझे लगता था कि तुम पढ़े-लिखे गंभीर व कुछ समझ रखने वाले हो। यही सोचकर तुमसे मिलने का मन हुआ था। पर यह मेरी गलतफहमी थी।” – जोशीमठ ने कहा।
यह सुनकर मेरे चेहरे का रंग थोड़ा उतर गया। पर मैंने चेहरे पर भाव प्रकट नहीं होने देने का प्रयास किया। और पूछा – “क्या मैं जान सकता हूँ कि आप को ऐसा क्यों लगा?”
“आप कह रहे हैं कि आप बीस साल पहले गढ़वाल छोड़कर देहरादून आ गए थे।”
“हाँ, यह सच बात है। मैं गलत थोड़े ही कह रहा हूँ।” – मैंने कहा।
“आप गलत ही कह रहे हो? देहरादून भी गढ़वाल ही है। वह तो तुममें देहरादून में रहने से एक आत्ममुग्धता का भाव आ गया है, जो अपने को श्रेष्ठ समझ रहा है। और तुम्हारी यही आत्ममुग्धता देहरादून को गढ़वाल के अन्य हिस्सों से अलग करके देख रही है। तुम्हारी इसी आत्ममुग्धता ने तुम्हारे पढ़े-लिखे और समझदार होने पर मेरे मन में संदेह पैदा कर दिया है।” – जोशीमठ ने जबाब दिया।
अब लज्जा के भाव मेरे चेहरे पर जोशीमठ की दरारों से भी गहरे दिखने लगे। मन किया कि वापस रजाई में अपना मुँह छुपा लूँ और हफ्तों तक उसको बाहर नहीं निकालूँ। हम दोनों के बीच एक गहरी चुप्पी छा गयी।
……..
जारी…..
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