प्रांतीय अधिवेशन – भाग-02

“भाई जी , ये लक्ष्मण विद्यालय कहाँ पड़ेगा ?”
“लक्ष्मण विद्यालय ?”
“जी”
“रोड पार करने के बाद पांच नंबर विक्रम में बैठना। उसे कहना कि रेलवे स्टेशन उतार देना। वहां से पूछना दरबार कहाँ है, वहीं लक्ष्मण विद्यालय है।”
……….
मैंने पांच नंबर विक्रम पकड़ा। बताये गये पते के अनुसार दरबार पहुंच गया। वहां पता चला कि यह तो लक्ष्मण संस्कृत विद्यालय है। सम्मेलन तो रेलवे स्टेशन से पल्ली पार भंडारी बाग वाले लक्ष्मण विद्यालय में है। मैंने महानिदेशक महोदय के पत्र में आयोजन स्थल को एक बार व्हट्स ऐप खोल कर चेक किया ‘लक्ष्मण भारती इंटर कॉलेज’ भंडारी बाग। फिर एक बार कन्फर्म किया। पता चला कि इस नाम का कोई विद्यालय वहाँ नहीं है। भंडारी बाग में जो लक्ष्मण विद्यालय है, उसका नाम लक्ष्मण भारती नहीं है ‘श्री लक्ष्मण विद्यालय इंटरमीडिट कॉलेज’ है।
……….
इसी कंफ्यूजन में मैं फिर दरबार से निकलकर मुख्य सड़क पर, रेलवे स्टेशन के पास आ गया। मैंने यहीं अगल-बगल एक होटल तलाश किया और एक रूम किराये पर ले लिया। अपना बैग रूम पर रख मैं होटल से बाहर चल दिया। थोड़ी दूर पर मुझे चाय की दुकान नजर आ गयी। वहाँ पहले से दो लोग बैठे थे। उनके पैरों पर नजर गयी तो उन्होंने पेस के जूते पहने थे। मुझे समझते देर न लगी कि यह भी मेरी तरह पहाड़ों से आये हैं। मैं भी दुकान में बैठ गया। अपने जैसे लोगों को पाकर मैं थोड़ा रिलैक्स हो गया।

“भाई साहब, एक चाय बनाना।”
मेरी आवाज अपेक्षाकृत तेज थी। मेरा कॉन्फिडेंस वापस लौट आया था शायद ? अपने लोगों के बीच। हालांकि अभी हमारा कोई परिचय नहीं हुआ था।

“यार अवनीश मैं तो कल वापस जा रहा हूँ।”
“क्यों, यार ? जब आ ही गये हैं तो रुकते हैं”
“तुम तो डेलीगेट हो, तुम्हारा तो वोट है। तुमको तो छुट्टी मिलनी ही है। तुम इसलिये कह पा रहे हो, मुझ पर तो कार्यवाही हो जाएगी ?”

मुझे समझते देर न लगी। यह भी शिक्षक हैं और मेरी तरह अधिवेशन में आये हैं। मैं भी डेलीगेट नहीं था। गाड़ी में मैं भी इसी दुविधा से दो चार हुआ था।

“नमस्कार भाई जी, मैं प्रकाश “- मैंने अपना हाथ उनकी तरफ बढ़ा दिया। उन्होंने प्रश्नवाचक नजरों से मुझे देखा। मैं अपना पदनाम भी नाम के साथ बता देता, तो शायद वह प्रश्नवाचक नजरों से न देखते। और उनको पता चल जाता कि मैं भी शिक्षक हूँ।
………
पर पद मैंने इसलिये नहीं बताया क्योंकि मैं तो एल0टी0 में हूँ, हो सकता है यह प्रवक्ता हों। आजकल सोसल मीडिया में जिस तरह संवर्गवाद का प्रचार हो रहा है। उससे दोनों संवर्गो के लोग एक दूसरे को शक की नजर से देख रहे हैं। यह एलटी वाला है इसकी वोट तो पक्का उसको होगी, यह कमीसन लेक्चरर है इसकी तो पक्का उसको ही होगी। इस संवर्ग वाद को सोसल मीडिया में लगातार देख, मेरे दिमाग में एक अनजाना खौफ भर गया। साथ-साथ काम करने वाले प्रवक्ता मित्रों व हमारे बीच एक अनकही सीमा रेखा सी खिंच गयी। और देखो तो यह रेखा यहां भी साथ चली आयी।
……….
एक सबसे अधिक पढ़ा लिखा समाज भी चुनाव के लिए संवर्गवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाई भतीजावाद, मीट-मुर्गा और दारूवाद में फंसा है। आजकल हर स्तर के चुनाव में यही सब वाद चलते हैं। कभी-कभी लगता है कि अगर इन सब वादों के लिए सम्मिलित रूप से एक शब्द की रचना करनी हो तो ‘चुनाव’ को उस शब्द के रूप में मान्यता दे देनी चाहिए।
……….
“मैं धारचूला से आया हूँ, मैं भी आपकी तरह सम्मेलन में आया हूँ।” – मैंने बात को आगे बढ़ाया।
अब वह दोनों थोड़ा सहज हुये। और हाथ मिलाकर अपना परिचय दिया।

“मैं अवनीश, उत्तरकाशी से”
“मैं सुशील उत्तरकाशी से”

अब हम तीनों एक साथ बैठ गये। चाय आ गयी और चाय के साथ बातचीत में लग गये।

“आप धारचूला कब से हैं ?”- सुशील ने मुझे पूछा।
“उन्नीस साल से, 1998 की नियुक्त है मेरी।”
“आप दोनों को कितने साल हुये अभी उत्तरकाशी में ?”- मैंने पूछा।
“मुझे ग्यारह साल हो गये, 2006 की नियुक्ति है मेरी।

इनको अभी दो साल ही हुये हैं। एक दिन इनको भी ग्यारह साल हो ही जायेंगे। आपको उन्नीस साल हो गये। इस बात को आपसे बेहतर कौन जान सकता है।”- सुशील ने जबाब दिया।

“नहीं, मुझसे ज्यादा सालों वाले भी हैं, वह और बेहतर जानते होंगे।”

हम तीनों इस बात पर एक साथ हंस दिये।
………..
(जारी…)
………..

(पात्र और घटनायें पूर्णतः काल्पनिक हैं। पसन्द आने पर लाइक व फॉरवर्ड जरूर कीजिएगा।)

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